Sunday 24 January 2010

क्या करें

क्या करें।
शायद इसी में सारी गुत्थीयाँ,
सारे सवाल,
थे।

इसी एक मंत्र का जाप
अंतिम समय तक
पकड़े रहे।

सुजित।

तुम्हारी देन है ये नाम
जिससे मैं कुछ दिनों से
काफ़ी नाख़ुश रहने लगा था।

क्या करें सुजित?
यह शायद अंतिम मंज़िल थी।
मुझे अब समझ भी आने लगा है
इस नाम का राज़,
इसी दिन के लिये जो तुमने रखा होगा।

अंतिम पड़ाव के पहले
उसी का नाम बुदबुदाते

इससे कम संकोच था
मुझमें, मेरे इस नाम में।
मृत्यु रख नहीं सकते थे,
यम एक हीं अकेला,
राख़ तुम्हें समझ नहीं आया
कि स्त्री है कि पुरुष

और फिर वहीं तो जाना था
इस पूरे निरर्थक निराकार
जीवन के उपलक्ष्य पर।
यहीं पर नाम रखा तुमने
वही एक जवाब का।

उसी की जीत है इस खेल में।
वहीं राख में हम कभी फिर मिलेंगे।

क्या करें?

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